28 जनवरी को हम भारतीय सेना के पहले कमांडर-इन-चीफ फील्ड मार्शल कोडंडेरा एम. करिअप्पा की जयंती मनाते हैं। करियप्पा को एक राष्ट्रीय नायक के रूप में पहचाना जाता है, जिन्होंने भारतीय सेना को उपनिवेशवाद से स्वतंत्र भारत के सैन्य ढांचे में बदलने में अहम भूमिका निभाई। उनके नेतृत्व ने सेना को एक सशक्त और प्रभावशाली संस्थान के रूप में स्थापित किया। उनकी उपलब्धियाँ भारत के रक्षा क्षेत्र के विकास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर हैं।
वे एक महान भारतीय सैन्य अधिकारी और राजनयिक थे। वह भारतीय सेना के पहले भारतीय सेनाध्यक्ष (चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ) थे। 1947 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में, उन्होंने पश्चिमी मोर्चे पर भारतीय सेना का नेतृत्व किया। 1949 में उन्हें भारतीय सेना का सेनाध्यक्ष नियुक्त किया गया। वह स्वतंत्र भारत के पहले फील्ड मार्शल भी बने।
करियप्पा का जीवन अनुशासन, नेतृत्व और देशभक्ति के आदर्श मूल्यों को प्रेरित करता है। आइए, फील्ड मार्शल करियप्पा के जीवन के बारे में विस्तार से जानें।
के.एम. करिअप्पा कौन थे?
फील्ड मार्शल के.एम. करियप्पा का जन्म 28 जनवरी, 1899 को कूर्ग प्रांत के शनिवरसांथे में एक किसान परिवार में हुआ। उनका परिवार कोडव कबीले से ताल्लुक रखता था। उनके पिता मडप्पा राजस्व विभाग में कार्यरत थे। छह भाई-बहनों में करिअप्पा दूसरे नंबर पर थे। उन्हें परिवार और मित्रों के बीच “चिम्मा” के नाम से जाना जाता था। 1917 में मदिकेरी के सेंट्रल हाई स्कूल से पढ़ाई पूरी करने के बाद, उन्होंने चेन्नई के प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। कॉलेज के दौरान उन्हें पता चला कि भारतीयों को सेना में भर्ती किया जा रहा है। सेना में शामिल होने की इच्छा के चलते उन्होंने इंदौर के डेली कैडेट कॉलेज में प्रशिक्षण के लिए आवेदन किया और सफलतापूर्वक चयनित हुए। यहाँ से वे अपनी कक्षा में सातवें स्थान पर उत्तीर्ण हुए।
के.एम. करियप्पा का गौरवशाली सैन्य करियर
करियप्पा का सैन्य करियर लगभग तीन दशकों तक चला, जिसकी शुरुआत प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश भारतीय सेना से हुई। उनकी पहली नियुक्ति 2/88 कर्नाटक इन्फैंट्री में अस्थायी प्रथम लेफ्टिनेंट के रूप में हुई, और बाद में 1/7 राजपूत बटालियन के कमांडर बने। यह उपलब्धि हासिल करने वाले वे पहले भारतीय थे।
करिअप्पा ने स्टाफ कॉलेज, क्वेटा में पढ़ाई करने वाले पहले भारतीय सैन्य अधिकारी होने का गौरव प्राप्त किया। वह बटालियन की कमान संभालने वाले पहले भारतीय अधिकारी भी थे। करिअप्पा इंपीरियल डिफेंस कॉलेज, कैम्बरली में प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले दो भारतीयों में से एक थे। सेना के सेनाध्यक्ष बनने से पहले, उन्होंने भारतीय सेना की पूर्वी और पश्चिमी कमान का नेतृत्व किया।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान करिअप्पा ने इराक, ईरान, सीरिया और बर्मा में विभिन्न सैन्य अभियानों का हिस्सा बनकर महत्वपूर्ण योगदान दिया। 1942 में वह भारतीय सेना के पहले भारतीय बटालियन कमांडर बने। स्वतंत्रता के बाद, उन्होंने डिप्टी चीफ ऑफ जनरल स्टाफ के रूप में कार्य किया और कश्मीर में प्रमुख रणनीतिक संचालन का नेतृत्व किया।
युद्धोपरांत जीवन
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद करिअप्पा को 1945 में ब्रिगेडियर के रूप में पदोन्नति मिली, जो इस रैंक को पाने वाले पहले भारतीय बने। विभाजन के समय करिअप्पा ने भारतीय और पाकिस्तानी सेना के बीच सैनिकों और उपकरणों के विभाजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
1947-48 के भारत-पाक युद्ध के दौरान उन्होंने भारतीय सेना का नेतृत्व किया। 1949 में भारतीय सेना के सेनाध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने सेना के आधुनिकीकरण में विशेष योगदान दिया।
विरासत और योगदान
करियप्पा की विरासत उनकी सैन्य उपलब्धियों से कहीं आगे तक जाती है। उन्होंने पूर्व सैनिकों के कल्याण के लिए भारतीय पूर्व सैनिक संघ (IESL) की स्थापना 1964 में की और पुनर्वास प्रयासों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। राष्ट्रीय सुरक्षा और सैनिकों के कल्याण के प्रति उनकी प्रतिबद्धता जीवन भर बनी रही।
करियप्पा का निधन और मरणोपरांत सम्मान
1953 में सेवानिवृत्ति के बाद, करियप्पा 1956 तक ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में भारत के उच्चायुक्त रहे। उनका निधन 15 मई, 1993 को हुआ। उनके उत्कृष्ट योगदान के सम्मान में, भारत सरकार ने 28 अप्रैल, 1986 को उन्हें फील्ड मार्शल का मानद रैंक प्रदान किया।
पुरस्कार और सम्मान
- जनरल सर्विस मेडल 1947
- भारतीय स्वतंत्रता मेडल
- ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर
- बर्मा स्टार
- वॉर मेडल 1939-1945
- भारतीय सेवा मेडल
- लीजन ऑफ मेरिट (चीफ कमांडर)
फील्ड मार्शल के.एम. करियप्पा का जीवन देशभक्ति, साहस और नेतृत्व का प्रतीक है। उनका योगदान हमेशा स्मरणीय रहेगा।