महर्षि दयानंद सरस्वती एक महान हिंदू दार्शनिक, समाज सुधारक और आर्य समाज के संस्थापक थे। उन्होंने वेदों की शुद्ध शिक्षाओं पर जोर दिया और भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिए व्यापक आंदोलन चलाया। उन्होंने 1876 में “स्वराज” (भारत भारतीयों के लिए) का नारा दिया, जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने अपनाया।
प्रारंभिक जीवन
दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी 1824 (हिंदू कैलेंडर के अनुसार की तारीख) को गुजरात के मोरबी जिले (तब काठियावाड़ क्षेत्र) के टंकारा गांव में एक हिंदू ब्राह्मण परिवार में हुआ था। पारंपरिक हिंदू कैलेंडर के अनुसार, दयानंद सरस्वती का जन्म फाल्गुन माह में कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को हुआ था। उनका मूल नाम मूलशंकर तिवारी (त्रिवेदी) था। उनके पिता कर्शनजी लालजी त्रिवेदी और माता यशोदाबाई थीं।
आठ वर्ष की उम्र में उनका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ, जिससे उनकी औपचारिक शिक्षा शुरू हुई। उनके पिता शिव भक्त थे और उन्होंने दयानंद को शिव पूजा और उपवास का महत्व सिखाया। एक बार, शिवरात्रि पर जागरण के दौरान, उन्होंने देखा कि एक चूहा शिवलिंग पर चढ़कर प्रसाद खा रहा है। यह देखकर उन्होंने सोचा कि जो भगवान खुद की रक्षा नहीं कर सकते, वे संसार के रक्षक कैसे हो सकते हैं?
अपनी बहन और चाचा की मृत्यु से वे जीवन और मृत्यु के रहस्यों को लेकर चिंतन करने लगे। किशोरावस्था में उनका विवाह तय हुआ, लेकिन उन्होंने गृहस्थ जीवन अस्वीकार कर दिया और 1846 में घर छोड़ दिया।
इसके बाद, उन्होंने 25 वर्षों (1845-1869) तक संन्यास जीवन बिताया और आध्यात्मिक सत्य की खोज में भारत भर में भ्रमण किया। वे हिमालय और विभिन्न तीर्थ स्थलों पर गए और योग साधना की। इस दौरान वे गुरु विरजानंद दंडीश के शिष्य बने। विरजानंद का मानना था कि हिंदू धर्म अपने मूल स्वरूप से भटक गया है। दयानंद सरस्वती ने अपने गुरु को वचन दिया कि वे वेदों के प्रचार और हिंदू धर्म को शुद्ध स्वरूप में पुनर्स्थापित करने के लिए अपना जीवन समर्पित करेंगे।
प्रमुख विचार और शिक्षाएँ
दयानंद सरस्वती ने मूर्तिपूजा, अंधविश्वास और कर्मकांडों का विरोध किया और वेदों को सत्य का सर्वोच्च स्रोत माना। उन्होंने कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धांत को स्वीकार किया और ब्रह्मचर्य तथा ईश्वर की भक्ति को जीवन का मूल आधार बताया। वे महिलाओं के अधिकारों और समाज में समानता के समर्थक थे। उन्होंने जातिवाद और छुआछूत जैसी कुरीतियों का विरोध किया।
आर्य समाज की स्थापना
1875 में, उन्होंने आर्य समाज की स्थापना की, जिसका उद्देश्य वेदों के अनुसार धर्म और समाज का पुनर्गठन करना था। आर्य समाज ने शिक्षा, स्त्री उत्थान और सामाजिक सुधार के लिए कई महत्वपूर्ण कार्य किए। इस आंदोलन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को भी प्रेरित किया।
प्रमुख ग्रंथ
महर्षि दयानंद ने कई महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे, जिनमें सत्यार्थ प्रकाश सबसे प्रसिद्ध है। इस पुस्तक में उन्होंने धर्म, समाज और राजनीति पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। इसके अलावा, उन्होंने वेदों की व्याख्या करने के लिए ऋग्वेद भाष्य भूमिका और यजुर्वेद भाष्य जैसे ग्रंथ लिखे।
अन्य धर्मों पर विचार
दयानंद सरस्वती ने ईसाई धर्म, इस्लाम, जैन धर्म और बौद्ध धर्म की भी समीक्षा की और उनमें मौजूद त्रुटियों को उजागर किया। उन्होंने हिंदू समाज को वेदों की ओर लौटने का आग्रह किया और धार्मिक ग्रंथों की तर्कसंगत व्याख्या की आवश्यकता पर बल दिया।
समाज सुधार
उन्होंने सती प्रथा, बाल विवाह और जाति प्रथा का विरोध किया तथा महिलाओं की शिक्षा और अधिकारों की वकालत की। उनका मानना था कि समाज में सभी को समान अधिकार मिलने चाहिए।
मृत्यु
1883 में, जोधपुर नरेश के महल में उन्हें विष देकर मारने का प्रयास किया गया, जिससे उनकी मृत्यु हो गई। अपने अंतिम समय में भी उन्होंने अपने हत्यारे को माफ कर दिया।
विरासत
दयानंद सरस्वती के विचारों का भारतीय समाज और स्वतंत्रता संग्राम पर गहरा प्रभाव पड़ा। आज भी आर्य समाज उनके सिद्धांतों को आगे बढ़ा रहा है। उनके योगदान को सम्मान देने के लिए प्रतिवर्ष विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।
निष्कर्ष
महर्षि दयानंद सरस्वती ने भारतीय समाज में क्रांतिकारी बदलाव लाने का कार्य किया। उन्होंने सत्य, धर्म और न्याय के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी और समाज को वेदों के वास्तविक ज्ञान की ओर लौटने का संदेश दिया। उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं और समाज सुधार के लिए मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।